सोमवार, 19 नवंबर 2012

हाथ जनता की नाडी पर

हाथ जनता की नाडी पर

जनता की नाडी पर

      हर वार्षिक ऋतु की तरह बजेट की ऋतु पहुँची है और सामान्य जन इस चिंता में डूबे हैं कि पता नही बजेट कैसा होगा- उनके लिये क्या लायेगा और क्या ले जायेगा।

      पिछले कई वर्षों के भारतीय आर्थिक-तंत्र का लेखा जोखा किया जाय तो इंडिया शाइनिंग वाला मामला ही दिखाई पडता है। आर्थिक विकास को मापने की जो पट्टियाँ बनी हैं वे हैं- फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व, शेयर बाजार का उछाल, जीडीपी, ग्रोथ रेट इन जीडीपी, कुल निवेश और कुल विदेशी निवेश ! केवल श्री चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री पद का एक वर्ष छोड दें जब हमें अपना गोल्ड रिजर्व गिरवी रखना पडा था। बाकी हर वर्ष देखने को मिलेगा कि उक्त सभी मापदण्डों में वृद्धि हुई है। कम से कम इतना तो अवश्य  है कि हर सरकार ने इन मापदण्डों में वृद्धि होने का दावा किया है और उसी वजह से अपने आपको शाइनिंग का कर्ता धर्ता बताकर अपनी पीठ ठोंकी है।

      पिछले कई वर्षों से हर बजेट पर हर वर्ष मैंने यही प्रतिक्रिया पढी है कि यह जनसामान्य का बजेट है। टीवी में अपने चेहरे चमकाते हुए लोगों ने बताया कि वे बजेट से कितने खुश हैं।

      फिर भी जब जब चुनाव की बारी आई जनता ने उठा पटक कर ही दी है। बार-बार। इसी लिए तमाम दावों के बावजूद ऐसा लगता है कि जो जनता बजेट के शुरूआती दिनों में टीवी पर अपनी खुशी जाहिर करती है, वह शायद बाकी महिनों में अपने हालातों से जूझते रहने के लिए मजबूर होती है। सो हंसते चेहरे से कहती है- वाह क्या बजेट है और नया चुनाव आता है तो पटकनी दे जाती है।

      कहीं ऐसा तो नही कि आर्थिक विकास के माप की जो पट्टियाँ तमाम दिग्गज इस्तेमाल करते हैं वे कहीं कहीं गलत हैं?

      मुझे याद आता है कि करीब बीस वर्ष पहले कृषि मंत्रालय में डेप्युटी सेक्रेटरी के पद पर काम करने वाले मेरे सहयोगी ने मुझे एक किस्सा सुनाया था। उस वर्ष कृषि उत्पादों के निर्यात के फलस्वरूप सरकार को पिछले वर्ष की तुलना में दोगुना आमदनी हुई थी। सारे डाटा के टेब्युलेशन का काम यही सहयोगी देख रहा था, तो अंतर्भेद को उससे अच्छा कौन जान सकता था? सब आपस में एक दूसरे की पीठ थपथपा रहे थे। उनसे नाराज मेरा सहयोगी- जिसे ज्यूनियर होने के कारण मुँह खोलने की अनुमति नही थी। अनुमति होती भी तो उत्सव मनाने वाले मूड में चेतावनी देने वाले को हमेशा शत्रुवत्‌ निगाह से देखा जाता है, इस बात को वह समझता था। सो चुप रहा- केवल कुछ खास खास मित्रों की मंडली में अपनी दिल की व्यथा कही। कहने का सारांश यों था कि हालांकि निर्यात - आमदनी में वृद्धि स्पष्ट दीख रही थी और वही उत्सव का कारण भी बनी थी, फिर भी कृषि उत्पादन अपने आप में पिछले वर्ष की तुलना में बढा नही बल्कि कम ही हुआ था। दूसरे, निर्यातित कृषि उत्पादन की मात्रा में भी वृद्धि नही हुई थी। तीसरे, ऐसा भी नही था कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कृषि उत्पादनों के दाम बढे थे, इसी से हमें ज्यादा मूल्य या ज्यादा विदेशी मुद्रा मिली थी। ज्यादा मूल्य पाने की वजह थी कि सरकार ने रूपये का अवमूल्यन कर दिया था। इसीलिए जहाँ    
उत्पादन निर्यात से मिले एक डॉलर के बदले निर्यातक को पहले पंद्रह रूपये मिलते थे, वहाँ अब पचीस मिल रहे थे- इस प्रकार निर्यातकों का व्यापार और लाभ दोनों बढे थे- लेकिन केवल रूपये की मापदण्ड पर। तो विदेशी मुद्रा की आवक बढी थी, निर्यात योग्य कृषि उत्पादन, और ही कुल कृषि उत्पादन। फिर भी
उत्सव मनाया जा रहा था।
     
      तब से मैंने गांठ बांध ली- कोई भी अपने अच्छे परफॉर्मेंस की बात करे तो पहले देखो कि उत्पादन कितना बढा है- बाद में पूछो कि विदेशी मुद्रा या रूपये कितने मिले हैं।

      पूंजी निवेश को समझने में भी हम धोखा खा जाते हैं। विदेशी निवेशकों की पूँजी और अपनी लगाई पूँजी में हम फर्क नही करते। मेरा तात्पर्य यह नही है कि हमें विदेशी पूंजी को नकारते रहना चाहिये लेकिन पूंजी निवेश की बढोतरी पर अपनी पीठ थपथपाने से पहले यह अवश्य देख लेना चाहिये कि कितनी पूंजी स्वदेशियों की बढी और कितनी विदेशियों की। बजेट की ऋतु में अपना परफॉर्मेंस बताते समय ये दो आंकडे अलग अलग करके नही बनाये जाते ही उनका अलग अलग 'वेटेज' दिया जाता है।

      लेकिन इससे अहम मुद्दा यह है कि पूंजी निवेश को आर्थिक विकास की सीढी या मापदण्ड क्यों माना जाता है? इसलिये कि पूंजी निवेश से दो बातें संभवित हैं- पहली संभावना है कि इससे रोजगार में वृद्धि हो। दूसरी संभावना है कि उत्पादन बढने से या तो जनता को चीजें सस्ती मिलेंगी या फिर उत्पादक कम्पनी का मुनाफा बढेगा- अर्थात्‌ उतना पैसा भारतीय मार्केट में आएगा- जिससे कुल व्यापार वृद्धि होगी।

      लेकिन कल्पना कीजिए कि यदि पूंजी निवेश के बावजूद तीनों में से कुछ भी नही हुआ- तो क्या होगा? यही कि जिस विकास को मान लिया गया था कि इसे होना ही है, वह नही होगा। इसीलिए केवल पूंजी निवेश को जानना काफी नही है- पूछना पडेगा कि इससे रोजगार वृद्धि कितनी हुई, या चीजें कितनी सस्ती हुईं- और कौन सी, यदि मुनाफा हुआ तो वह मुख्य रूप से किसकी जेब में गया, और वहाँ से वापस मार्केट में आकर उसने कुल मार्केट बढाया या नही। मजे की बात यह कि तीसरी और चौथी बात हो भी जाये तो भी जरूरी नही कि उसका लाभ जन-सामान्य को मिले। वह मिलने का एक उपाय यह है कि उत्पादन और व्यापार वृद्धि के फलस्वरूप सरकारी खजाने में आयकर और बिक्रीकर से आने वाली धनराशि बढे।

      सामान्य वर्ग आज यही देखता है कि सरकारी आंकडे यह तो बताते हैं कि पूंजी निवेश कितना बढा- उसका श्रेय भी लूटना चाहते हैं लेकिन यह नही बताते कि रोजगार कितना बढा, सरकार का आयकर कितना बढा, उत्पादन कितना बढा वगैरह।

      सामान्य वर्ग सबसे अधिक परेशान इस बात से हुआ है कि पिछली कई सरकारों ने लगातार कोशिश की है कि उपभोगवाद बढे और बचत की अवधारण को खत्म किया जाय। अर्थात खर्चों, खर्चो, खर्चों की नीति। ऐसी नीति जो बचत करने वाले को हर तरह से जोखिम में डालती है। इस खर्चो, खर्चो नीति का ही एक दृश्य स्वरूप है शेयर मार्केट का उतार चढाव। इसे विस्तार से समझना जरूरी है।

      अभी भी देश की अधिकांश जनता पूंजी निवेशकों की श्रेणी में नही है। चालीस से पचास प्रतिशत जनता गरीबी-रेखा से नीचे है इसलिये पूंजी निवेशक नही हो सकती है। अन्य बीस-पचीस प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो दिनभर अपनी नौकरी में मेहनत करने के बाद महीने के अंत में एक तयशुदा रकम अपने घर लाते हैं। अन्य कई 'रिटायर्ड' की श्रेणी में आते हैं।

      ये सभी संवर्ग ऐसे हैं जो अपनी इसी कमाई का कुछ हिस्सा मुसीबतों के लिये संभालकर रखना चाहते हैं। पूंजी निवेश के साथ साथ जो निरंतर सजगता, मार्केट मॅनेजमेंट तथा रिस्क लेने की मजबूरी जुडी हुई है,
उससे यह वर्ग बचना चाहता है। यह वर्ग चाहता है कि यदि वह दिनभर की ईमानदार मेहनत करके कुछ रकम घर ला रहा है तो आगे उसके हितों की रक्षा सरकार करे- उसे पूंजी निवेश का रिस्क लेने के लिये मजबूर करे- वह अपने आने वाले दिनों के लिये जो कुछ बचत करना चाहता है- उसकी रखवाली का जिम्मा सरकार उठाये।

      लेकिन पिछले कई वर्षों से ऐसी ईमानदार कमाई और छोटी मोटी बचत करने वाले के पल्ले क्या पडा है? उसके हिस्से आया है, निरंतर घटती हुई ब्याज दरों के कारण उसकी गाढी कमाई के रूपयों का अवमूल्यन।

      पिछले कई वर्षों से सरकार बचत को कम तवज्जो और शेयर बाजार में पूंजी निवेश को ज्यादा तवज्जो दे रही है ; इसे इस बात से जाना जा सकता है कि एक तरफ तो बचत करने पर मिलने वाले ब्याज दरों में कमी आई है, दूसरी तरफ शेयर डिविडण्ड से मिलने वाली आय पर आयकर छूट दी जा रही है।

      शेयरों में पूंजी निवेश को बढावा देना सौ प्रतिशत गलत है ऐसा मैं बिलकुल नही मानती। लेकिन बचत करने वालों को नुकसान पहुँचाने की नीति को अवश्य ही गलत मानती हूँ।

      अब सवाल उठता है कि एक सरकार की चाह के मुताल्लिक सामान्य जन ने शेयरों में पूंजी निवेश की हिम्मत भी कर ली तो शेयर घोटालों से उसे बचाने के लिये किस सरकार ने अब तक क्या किया?

      अस्सी के दशक में सबसे पहले बैंकों में बडे पैमाने पर घोटाले हुए। कैनफिन, कैनरा बैंक, स्टेट बैंक, बैंक ऑफ इण्डिया, इण्डियन बैंक आदि मिलाकर लाखों करोडों रूपयों का घोटाला हुआ। यह सब सरकारी बैंकें थी और इनमें लगा पैसा जनसामान्य का था। बैंकों से निकला यह पैसा किसी की तो जेब में पहुँचा ही है। लेकिन कितने पकडे गए? कितनों पर मुकदमा चला, कितने छिप और बच गए? कितनों को सजा हुई, कितनों का कितना पैसा जब्त करके सरकार जमा कराया गया?

      कुछ नही हुआ। सरकार जानती है कि जनता के पास स्मरणशक्ति या मेधा नामकी वस्तु नही है। अतः सरकार ने इन सारे मामलों की जाँच को उतनी ही लापरवाही और तुच्छता के साथ चलने दिया जितनी किसी गरीब की साइकिल चोरी के मामले की जाँच कराई जाती है।

      इसके बाद तो कईयों के मुँह में खून लग गया। फिर हर्षद मेहता घोटाला हुआ, पारेख घोटाला हुआ, यूटीआई घोटाला हुआ। किसी भी केस में किसी सरकार ने लापरवाही की सीमारेखा से जरा भी उठकर जाँच करवाई हो और देश का पैसा वापस सरकारी तिजोरी में लौटवाया हो तो दिखा दीजिए।

      तो ऐसे शेयर मार्केट में अपनी पूंजी लगाकर अपनी लुटिया आप डुबाने की मजबूरी में जनता को बार बार डाला गया है। विचारी जनता चुनावों के माध्यम से अपना बदला ले तो क्या करे?

     
      तो सामान्य जन के पास पर्याय क्या क्या हैं? या तो अपनी गाढी कमाई के पैसे खर्च डालो और जब जरूरत पडे तो भीख माँग लो या आत्महत्या कर लो। या फिर उन्हें बैंक में रखो और अपनी आँखों से उनके घटते ब्याज दर से होते अवमूल्यन को देखकर खून के घूँट पी जाओ। या फिर उन शेयर बाजारों में लगाओ
जहाँ केवल 'क्विक कमाई' के फलसफे वाले ही टिक सकते हैं- सो भी उतनी चतुराई हो तब !

      एक चौथा तरीका भी है जो कई लोग अपनाते हैं। खासकर वो जो बाहुबली होते हैं (इनमें बडे पैमाने पर पुलिस भी शामिल है) वे प्राइवेट मार्केट में अपना पैसा ब्याज पर चढा देते हैं। जिसे दिया वह कभी ब्याज और मूल लौटाने से इनकार भी कर सकता है। इसी से डण्डे का जोर साथ में होना आवश्यक है। यह समानान्तर अर्थ व्यवस्था है जो बडे पैमाने पर अंडरवर्ल्ड को भी प्रश्रय देती हैं। क्या किसी को याद है कि कभी किसी सरकार ने इस समानान्तर अर्थव्यवस्था को रोकने के लिए कुछ किया है?

      आज हर सरकार अपनी अर्थ कुशलता में प्रोफेशनॉलिझम का दावा करती है। आर्थिक विकास और खास तौर से सरकारी प्रोफेशनॅलिझम की एक पहचान यह है कि आप बैंक के ब्याज दर और समानान्तर अर्थ व्यवस्था के ब्याज दरों की तुलना करें। दोनों में जितना कम अंतर होगा, आपकी व्यवस्था उतनी ही ईमानदार और सुदृढ होगी। जब ये दोनों ब्याजदर एक जैसे होंगे- तो समानान्तर अर्थ व्यवस्था अपने आप समाप्त हो जायगी। क्या हमारी बैंकों की कार्यकुशलता को इस मापदण्ड पर तोलने की हिम्मत कोई दिखा सकता है? आज यदि बैंक से ऋण लेना हो तो पंधरा प्रतिशत ब्याजदर है और काले बाजार का ब्याजदर है डेढ सौ प्रतिशत। फिर भी बैंकों को ऋण लेने वाले ग्राहक नही मिलते और उनके पैसे वैसे ही पडे रहते हैं। इसी वजह से वे अच्छा मुनाफ नही कमा पाते और इसी वजह से वे बचत करने वालों को अच्छा ब्याजदर नही दे सकते। आज यदि बचत के कम ब्याजदर से जन सामान्य चिंतित है, तो उसकी एक बडी वजह है अंडर वर्ल्ड द्वारा चलाई गई समानन्तर अर्थ व्यवस्था।

      क्या हम उम्मीद करें कि अब की सरकार बजेट के दौरान इन मुद्दों को अपनी विचार प्रणाली में भी शामिल करेगी? बडी संख्या में जनता यही चाहती है कि सरकार उसे बचत के रास्ते से खींचकर शेयर बाजार के रास्ते पर धकेले। क्या इसके लिए बजेट में समुचित उपाय होंगे?
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