शनिवार, 3 सितंबर 2011

डॉ राज बुद्धिराजा

डॉ राज बुद्धिराजा
-लीना मेहेंदले

      दिल्ली के प्रमुख हिंदी दैनिकों में से एक - दैनिक जागरण ! उसमें एक छोटा सा कॉलम- हाशिए पर। उसमें एक लेख था- मेरी सहेली से ऑफिस के काम में कोई चूक हो गई, तो सजा के तौर पर उसके बॉस ने उसकी तनख्वाह रोक दी। बॉस ने यह भी सोचा कि अरे, यह महिला क्या खाएगी? घर में बिमारियाँ हों तो किसके सहारे उन्हें झेलेगी? बच्चों की स्कूल की फीस जमा करानी हो, कपड़े ; स्कूल बैग, किताबें.......... उस छोटी सी रकम से वह क्या क्या पूरा करने की कोशिश करती होगी? ........, मैं जापान में थी, तब मेरे पास एक कार थी। कहते हैं, वह कार आपके मन के भावों को पढ सकती थी, और फिर अपना ही वातावरण कुछ ऐसा बना लेती थी कि आपको कुछ तसल्ली मिले, कुछ अच्छा लगे। आप मजे में हों, तब वह भी कुछ हल्का-फुल्का वातावरण, बनाती, उसके व्हिडियो स्क्रीन पर वैसे ही चित्र उभरते। आप दुख में हों, परेशान हों, तो उसके अनुरूप रंग और चित्र आते- मानो आपको समझा रहे हों- कि अरे, दुख-सुख तो जिंदगी में लगे रहेंगे।.............
      मैंने सोचा कि कहाँ एक निर्जीव कार जो हमारे भावों को पढ़ सकती है और उसके अनुरूप होकर आपको तसल्ली दे सकती है और कहाँ वह जीवित बॉस जो इतना संवेदनाहीन है कि अपने स्टाफ के दुख दर्द को समझ नही सकता...........
      कहीं वैसे बॉस आप तो नही?
      यह थी एक झलक ! और लेखिका थीं डॉ राज बुद्धिराजा ! इससे भी पहले इनके कई लेख इसी कॉलम में मैंने पढे थे और कहीं कहीं वे मन के तारों को छेड गये थे। इस कदर, कि एक दिन मैंने सीधे दैनिक जागरण के दफ्तर में फोन किया, डॉ राज का फोन नंबर पूछ लिया, फिर उन्हें भी फोन किया और जाकर उनसे मिल आई। उन्होंने अपनी लिखी एक पुस्तक भेंट दी- उसका नाम भी था 'हाशिए पर' ! इसमें एक छोटी कहानी थी 'सेवी' की- कुछ इस प्रकार कि सन्‌ सैंतालिस में विभाजन हुआ तो पाकिस्तान से हिन्दुओं में भागदौड मच गई दिल्ली आने के लिये। सेवी के माता पिता कुछ धनी थे। किसी तरह सेना के संरक्षण में माता, पिता, सेवी और उसका भाई मुलतान हवाई अड्डे पर पहुँचे। वहाँ भी इच्छुकों की भीड़। सबके पास हवाई टिकट लेकिन हवाई जहाज में जगह की कमी। माता-पिता ने बेटे को अपने से आगे किया और किसी तरह उसके साथ विमान पर चढ गये। सेवी से कहा- तुम दूसरे जहाज से जाना- दिल्ली में तुमसे मिल लेंगे। सेवी देखती रही- कैसे बेटे की तुलना में बेटी को नकारा गया था। आँखों से आंसू बह निकले। उसी समय जहाज का अंग्रेजी कॅप्टन गुजर रहा था- उसने पूछा पॅरेंट्स? इसने सर हिलाया- नो !
वह कॅप्टन सेवी को लेकर जहाज में चढ़ आता है। दिल्ली अड्डे पर सब लोग उतरते हैं तो सेवी की इच्छा नही होती कि आगे बढ कर अपने माँ-बाप से मिले। वह उसी कप्तान के साथ जाती है। वह भी उसे पितृत्व के भाव से पालता है। बाद में कविवर फैज अहमद फैज उसे धर्मपुत्री बना लेते हैं, और उसी कप्तान के लड़के से उसकी शादी भी होती है। बरसों बाद
अचानक तोक्यो में वह लडकी फैज के साथ 'राज' के घर खाने पर आती है- और कहती है- अरे ऐसे मूली परांठे तो राज बनाया करती थी- क्या तुम राज हो? हाँ, और क्या तुम सेवी?
      डॉ. राज बुद्धिराजा का जन्म सन्‌ उन्नीस सौ सैंतीस में लाहौर में हुआ, दस साल तक दादी के पास निश्च्िंातता से रहीं। स्कूल भी पढीं। फिर सबको भागकर दिल्ली आना पड़ा। पिता का 'अग्निहोत्र' व्रत था। सो घर में पूजा पाठ, वेद अध्ययन इत्यादि था। इसी संस्कार का फल है कि आज भी डॉ. बुद्धिराजा के घर में वर्ष में एक बार तीन दिनों तक सामगायन का आयोजन होता है।
      लेकिन डॉ. राज बताती हैं कि लड़की को पढाने के मामले में पिता दकियानूसी रहे। शादी भी हुई तो ससुराल में वही बात औरतें क्यों पढेंगी? छिप छिप कर पढाई और सहेलियों की मदद से छिप छिपकर प्राइवेट परीक्षाएँ देते हुए उन्होंने एम.ए की डिग्री हासिल कर नौकरी आरंभ की तो घर में तूफानी बवण्डर आना लाजिमी था।
      कालिंदी कॉलेज में हिन्दी अध्यापिका की नौकरी आरंभ करने के बाद संयोग से मॉरिशस की यात्रा, किसी से जापानी भाषा की पढाई का सुझाव, फिर अचानक हिन्दी अध्यापिका के रूप में जापान में मौका- वहाँ से डॉ. बुद्धिराजा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। जापान के अलावा पेरिस, लंदन, आदि जगहों पर भी छोटे छोटे अंतराल के असाइनमेंट्स मिलते हरे। जापान आना जाना लगा रहा। कई जापानी इनके शिष्य हुए और जापानी परम्परा के अनुरूप शिक्षक को मिलने वाले सम्मान भी उन्होंने पाये। आज भी भारत में जापानी दूतावास के कई अधिकारी उनके शिष्यों में से हैं। जापानी कल्चरल एण्ड इन्फार्मेशन सेंटर की फिरोजशाह रोड स्थित बिल्डिंग का एक छोटा हिस्सा डॉ. बुद्धिराजा की संस्था को अपने कार्यक्रमों के लिये दिया गया है- इसके अलावा मुख्य कार्यालय के कार्यक्रम भी उनकी सलाह के बिना पूरे नही होते।
      इन सारी घटनाओं का और अनुभवों का गहरा असर उनकी लेखनी पर पडना ही था।
      उन्होंने ही बताया कि उनके डेढ-दो हजार के करीब लेख प्रकाशित हो चुके हैं और पच्चीस के आसपास पुस्तकें जिनमें- हाशिए पर, दिल्ली : अतीत के झरोखे से, जापान की श्रेष्ठ कहानियाँ (अनुवाद), साकुरा के देश में, कावेरी, रेत का टीला आदि मैं पढ चुकी हूँ। एक कविता-संग्रह है सप्तपर्णी मन। एक जापानी-हिंदी शब्दकोष का संपादन और संकलन भी किया है, जो अपने आपमें अनूठा और उपयोगी है।
      डॉ. बुद्धिराजा का लिखना और लेखिकाओं से अलग तरह का है। जिसने जिंदगी में बंधन ही बंधन झेले हों, जिसके पास उन्हें बताने को लेखनी के अलावा कोई माध्यम हो और उस लेखनी पर भी दुनियादारी की एक शपथ लगी हो, तो जो लिखा जायगा- कुछ वैसा ही है। हर लेखक या लेखिका विद्रोही नही लेखिका होती। डॉ. राज भी नही हैं। इसी कारण उनकी रचनाएँ भी अधिकतर छोटी छोटी हाशिए की टिप्पणी की तरह लेकिन हौले से हमारे ही मन के अंदर रख्खी पडी सुगंधी कुप्पियों को खोलते हुए आगे बढ जाती हैं। लेखन में पुरानी, बीत चुकी परंपराओं का मोह आज भी है। अत्याधुनिक, वैज्ञानिक ऐसा कुछ लेखन में नही है। लेकिन पढते पढते इस ख्याल तक पहुँचने के पहले ही एक दूसरा एहसास हो जाता है कि यह
लेखिका इतनी अचानक आपके मन की बात आपके सामने रख देती है कि आप चौंक जाते हैं। कभी उनकी उंगली आपकी खुशियों पर होगी तो कभी आपके दुखों पर, कभी आपकी अच्छाइयों पर होंगी तो कभी आपकी बुराइयों पर ! यों आपको आपके मन के समीप छोड़कर लेखनी फिर आगे बढ जाती है- दूसरे हाशिए पर !
      अपने चारो ओर, आस पास जो बुरा घर रहा है, उस पर हर कोई कुछ उपाय नही कर सकता। डॉ. राज भी नही कर सकतीं हैं और करती हैं। लेकिन कर सकने की बात बड़ी सहजता से स्वीकार करती हुई ! तो आपको भी लगता है, कि यदि आपने भी कुछ नही किया तो सही, लेकिन कोई कोई करने वाला जरूर निकलेगा। फिर आप भी उसी की आशा और दुआ करने लगते हैं।
      सामाजिक परिवेशों के कारण प्रेम की परिकल्पना भी बदल जाती है। एक प्लेटोनिक प्रेम ही संबल बन जाता है। वही भाव जो मध्य युगीन कवियों का रहा, जिन्हें डॉ. बुद्धिराजा ने विशेष रूप से पढा और उन पर लिखा है। कवि देव, कवि मंझन, कवि घनानंद आदि उनके चिंतन, मनन और लेखन का विषय रहे हैं। अपने जीवन में भी जो अव्यक्त, अछूते कण उन्होंने बटोरे हैं, उनकी लौ उनके लेखन में इंद्रधनुष के सप्तरंगों के साथ चमकती रहती है।
      भारत से जापान जाने वाले कई लोग हैं। वहाँ हिन्दी पढाने वाले भी कई होंगे। फिर भी डॉ. बुद्धिराजा में काई बात रही होगी जिस कारण जापानी सरकार ने उन्हें गौरवान्वित और पुरस्कृत किया। जापानी सम्राट् की ओर से जापान में ऊँची उपलब्धियाँ पाने वालों के साथ साथ ही, विदेशियों को भी कभी कभी यह पुरस्कार दिया जाता है जिसे च््रण्ड्ढ दृद्धड्डड्ढद्ध दृढ च्ड्ढड़द्धड्ढड्ड च््रद्धड्ढठ्ठद्मद्वद्धड्ढ कहते हैं। जापानी-हिन्दी भाषाई संबंध बढाने और दोनों के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान को गहरा करने के लिए यह पुरस्कार उन्हें दिया गया। जब अप्रैल २००१ में जापानी सम्राट् की ओर से एक प्रेस रिलीज में इस पुरस्कार के लिये डॉ. बुद्धिराजा के नाम की घोषणा हुई तो बरबस कइयों की निगाहें उठ गईं। दिल्ली स्थित जापानी दूतावास में हुए इस कार्यक्रम में हमारे विदेश मंत्रालय के अधिकारी गए तो अवश्य लेकिन विदेश मंत्रालय ने उनके योगदान को पहचानने या गौरवान्वित करने की जहमत आजतक नही उठाई। इसे हमारी सरकार में देश में गुण ग्राहकता की कमी ही माना जायगा। वरना क्या बात है कि जापान की सरकार और सम्राट् एक महिला का गौरव करते हैं- भारत-जापान के सांस्कृतिक संबंधों को दृढ करने के लिये- और जिस विदेश मंत्रालय का काम है कि अन्य देशों से अपना सांस्कृतिक संबंध मजबूत करें, वह मंत्रालय इस बात को नजरअन्दाज कर जाता है।

      दो देशों की संस्कृति को जोडने का डॉ. बुद्धिराजा का काम आज भी चल रहा है और साहित्य सृजन का भी।
      एक दिन बातों बातों में मुझसे बताने लगीं कि मुलतानी भाषा कितनी सुंदर और मुहावरेदार है- और सोचने लगीं कि मुलतानी मुहावरे, मुलतानी संस्कृति पर ही एक पुस्तक लिखी जाय। तो एक और दिन, इंडिया-गेट पर रेवडियाँ खाते खाते बातें हुईं कि संक्रांति का पर्व देश के अलग अलग हिस्सों में कैसे मनाया जाता है, इसी पर पुस्तक लिखी जाय !
      कम से कम मुझे तो अवश्य प्रतीक्षा रहेगी उन पुस्तकों की !  
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