शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

05 इस ढीली दंड प्रक्रिया को बदलिए

इस ढीली दंड प्रक्रिया को बदलिए
नभाटा दिल्ली, जनवरी 2000
नौ जनवरी, १९९९ की रात को भुवनेश्रवर-बारंग-कटक मार्ग पर श्रीमती अंजना मिश्र के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। इस धटना के दो चश्मदीद गवाह भी थे, जिनमें से एक अंजना के साथी सुतनु और दूसरा टैक्सी ड्राइवर राऊत थे। इन दोनो ने भी अपने बयान पुलिस को दिए जिनमे इस आरोप की पुष्टि की गई है। व्यक्तियों के नाम भी पुलिस ने जान लिये है और ११जनवरी, एक आरोपी साहू पकड़ा भी जा चुका है। साहू ने पुलिस के समक्ष अपराध स्वीकार भी कर लिया था और उस जगह की पहचान भी कर ली जहां बलात्कार किया गया था। इसी जगह की पहचान अंजना के दो गवाहों ने भी कर ली है। पुलिस को मेडिकल रिर्पोट भी मिल गई है। यह रिर्पोट प्राथमिक रिर्पोट है और बेहद अपर्याप्त रुप से को ----- करते है। अब सवाल यह है कि जब इस जघन्य रिर्पोट पुलिस में लिखी जा चुकी है और कम से कम एक अपराधी ने अपराध भी मान लिया है और गवाह तथा अन्य सबूत भी पुलिस के पास है। एक गंभीर सवाल यह उठता है कि भारत की शिक्षित व महिलाओं का क्या करते बनता है? हम समझ सकते है जब अंजना जैसी कोई धटना हो रही है या जब तक कोई भी अपराधी मौजूद है तब तक देश की कोई महिला इस तरह के खतरे से खाली नही है। क्या यह समझने की जिम्मेदारी भी हमारी नहीं कि जब तक बलात्कार करते वाले हर अपराधी को तत्काल और तत्परता से सजा नही दी जाती तब तक समाज मे ऐसे ही और अपराध अधिकाधिक होते रहेगे? और इस उलझन की जिम्मेदारी भी हमारी ही है कि अपराधी को दंड मिलने में जितनी देर हो रही है उतना ही हमारा खतरा बढ़ रहा है। मेरे विचार से बारंग आसपास के गाँवों की महिलाएं भी जानती और समझती होगी कि जब साहू और उसके अन्य दो साथी (जो बारंग के ही निवासी है) खुले रहेगे या जमानत पर रिहा होते रहेगे तब तक उन महिलाओं के लिए भी खतरा शुरु हो जाता है जैस अंजना मिश्रा के साथ हुआ।

इन सारी बातों का विचार किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि आज की ---- में साहू के सारे अपराधों की जांच या छानबीन करना उतना आवश्यक नही है जितना कि साहू के जो भी अपराध आज न्यायालय मे ---- जा सकते है, उन पर तत्काल कार्यवाई हो और कम से कम ऐसे अपराधों के लिए उसे तत्परता से सजा भी मिले। अंजना ने आरोप ---- घटना सामान्य बलात्कार को न होकर सामूहिक बलात्कार को --- पीछे भूतपूर्व एडवोकेट जनरल जैसे उच्चतम अधिकारियों का --- है ओर इस षडयत्रं मे उड़ीसा के मुख्यमंत्री भी शामिल है। उधर --- सरकार ने भी यह घोषणा कर दी है कि इस सम्पूर्ण अपराध को और इस आरोप की न्यायिक जांच की जाएगी। फिर भी मै यह दावे के साथ कहना चाहती हूं कि आज की तारीख मे हमारी प्राथमिकता सम्पूर्ण की नही होनी चाहिए। हमारी प्राथमिकता वहां होनी चाहिए जो हम और आप अभी तत्काल सुनवाई के लिए कोर्ट में दाखिल कर सकें, जो हम --- कर सके और जिनकी सजा दिलवा सकें। सजा का आरंभ होना आवश्यक है क्योंकि वही एक बात है जिसमें समाज एवं महिला वर्ग को कुछ आशा बंध सकती है कि आने वाले दिनों में अपराधी को खुलेआम अपराध का मौका नही मिला करेगा ।

एक बार उन आरोपो को देखें जो अंजना ने लगाए है। सबसे पहला आरोप यह है कि साहू एवं अन्य दो व्यक्तियों ने, जिनकी पहचान पुलिस को ------ उसके साथ चार से छह धंटे तक रिवाल्वर को नोक पर बलात्कार किया। उसका दूसरा आरोप यह है कि इस षडयन्त्र में उड़ीसा के भूतपूर्व एडवोकेट इन्द्रजीत राय एवं भूतपूर्व मुख्यमंत्री पटनायक का भी हाथ है। उसका तीसरा आरोप यह है कि इस पूरे मामले में उडीसा पुलिस का रवैया अत्यन्त अमवंदनशील है। एक अपरोध स्पष्ट है कि साहू और उसके साथी बिना लाइसेंस के रिवाल्वर लिये धूम रहे थे और यह रिवाल्वर भी उनके पास नाजायज तरीके से ही पहुंचा होगा। इसी रिवाल्वर से उन्होंने अंजना और सुतनु को जान से मारने की धमकी दी जिसके कारण अंजना के साथ बलात्कार संभव हुआ। इस प्रकार हम देखते है कि कम से कम तीन अपराध ऐसे है जो साहू ने कबूल कर लिये है और जो
अन्य गवाहों के साक्ष्य एवं पुष्टि के साथ कोर्ट मे खीचे जा सकते है। क. अंजना पर बलात्कार जो कि भारतीय दंड संहिता की धारा ३७६(१) के अंतर्गत एक अपराध है। ख. बगैर लाइसेंस के रिवाल्वर रखना जो कि आर्म्म एक्ट को धारा २५ के अंतर्गत अपराध है। ग. अंजना और उसके साथियों को रिवाल्वर दिखाकर मारने की धमकी देना जो भारतीय दंड संहिता की धारा ५०६ के अंतर्गत अपराध है वह है सामूहिक बलात्कार का अपराध जो भारतीय दंड संहिता की धारा ३७६ (२) के अंतर्गत दंडनीय है और उससे भी बड़ा अपराध का मामला एक षडयत्रं का है।

सवाल यह उठता है कि साहू को पहले तीन अपराधों के अंतर्गत तत्परता से सजा क्यों नहीं हो रही है जबकि अपराध को इतने दिन गुजर चुके है। गौर करने की बात यह है कि हमारी अपराध प्रक्रिया संहिता
(क्रिमेनल प्रोसेजन कोड १९७३) कही भी यह नही कहता कि हम न्यायिक कार्यवाई करने एवं दंड दिलवाने मे देर करे। उलट अपराध प्रक्रिया संहिता तो यह कहता है कि हर अपराध की जांच और न्यायिक प्रक्रिया और दंड की कार्यवाइ छह महीने के अन्दर ही पूरी होनी चाहिए। फिर भी हमारे देश की यह आदत बन चुकी है कि हम हर जांच बड़ी सुस्त और शिथिल गति से करते है। यह सुस्त गति न केवल हमारी पुलिस जांच में देखी जाती है बल्कि हमारी सार्थक प्रक्रिया और सरकार के अन्य विभागों में भी सर्वव्याप्त है। अंजना के केस से तो इस देरी या सुस्ती का एक सरकारमान्य कारण यह भी कहा जा सकता है कि पुलिस और न्यायिक जांच के द्वारा सरकार षडयंत्र तक के सारे मामलो की समग्र जांच करवाना चाहती है और समग्रता के कारणों के पीछे उन अपराधों का दुलंक्षित किया जा सकता है जो उस समग्रता का एक अंश है - भले ही वे अपराध कबूल क्यों न कर लिये गए हो। यहां मुझे एक कहावत याद आती है कि 'आधी छोड़ पूरी को धावे आधी मिले न पूरी पावे'। समग्रता के पीछे पड़कर आशिक किन्तु सहजता से सिद्ध होने वाले अपराध को आगे न चलाने के चक्रव्यूह में उड़ीसा पुलिस उलझकर रह गई है। यद्यपि यह मानना पड़ेगा कि केस को सही विधानों के अंतर्गत रजिस्टर कराने मे और छानबीन का सिलसिला बनाने में उन्होंने काफी तत्परता से काम किया। क्या इस चक्रव्यूह को बरकरार रखकर हम सारे अपराध जगत को खुशी का संदेशा नहीं दे रहे है कि भाई तुम तो अपराध करते चलो और हम तुम्हारा तब तक कुछ नही बिगाड़ेगे जब तक हम तुम्हारे सारे अपराधों की समग्र जांच पूरी न कर पाएं। और कौन कह सकता है कि पूरी और समग्र जांच में कितनी देर लग सकती है।

इस देश में कानून का सम्मान करने वाले जितने भी नागरिक है और महिला चेतन के लिए काम करने वाली जितनी भी संसथायें है, उनके आगे आने का समय आ गया है क्या वाकई यह सही है कि साहू के पहले तीन अपराधों की आज और तत्काल सुनवाई आरंभ कर देने से क्योकर समग्र जांच की न्यायिक प्रक्रिया मे बाधा पड़ सकती है? समग्र जांच की आड़ में छिप सकने का फायदा हम साहू या उस जैसे अपराधों को क्यों दे जबकि उसके छोटे अपराधों की सजा तो उसे तत्परता से दी जा सकती है। यदि कोई बाधा भी हो तो हमें उस बाधा को दूर करके तत्काल दंड प्रक्रिया का रास्ता ढूंढना पड़ेगा। यदि हम ऐसा नही कर पाते तो हमारे अपने और हमारे समाज के अस्तित्व को ही इससे खतरा है - अपराधों को कोई खतरा नही।

यहां जलगांव सैक्स स्कैडल में उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय का उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत है। मुंबई उच्च न्यायालय ने यह कहा कि बलात्कार की शिकार महिलाओं ने सेशन जज के सम्मुख जो बयान दिया, वह उन्हें अपर्याप्त लगा और ठीक से प्रभावित नही कर पाया। अन्य कारणों के साथ इस कारण को भी बताते हुए उच्च न्यायालय ने सैक्स स्कैडल के आरोपी नफजल को बरी कर दिया हालांकि सेशन को आरोप को सही पाया था और उसे सात साल की सजा भी सुनाई थी। हम सोचे कि इस केस को महिलाओं का साक्ष्य प्रभावित क्यों नही कर सका और इस अपूर्णता में सुनवाई की देरी का कारण कितना महत्वपूर्ण जलगांव सैक्स स्कैडल की धटना १९९३-९४ के बीच हुई जबकि ये कोर्ट के सम्मुख पेश होने तक वर्ष
१९९५-९६ आ चुका था। जरा सोचो कि हम क्या चाहते है कि बलात्कार की शिकार कोई भी महिला अपने जख्मों को इतने लम्बें समय तक ढोती चले ताकि साक्ष्य देने के समय प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत कर सके?

यहां हमें यह नही भूलना चाहिए कि जलगाँव के केस की सुनवाई जितनी तत्परता से हुई, वह भी एक अपवाद है। फिर भी सुनवाई मे दो का समय व्यतीत हो गया। बलात्कार के कई केसों में तो सुनवाई के पाँच से इस साल तक लग जाते है। क्या यह उचित है कि हम बलात्कार शिकार महिलाओं से कहे कि वे अपने सारे दर्द और जख्मों को दो से ---साल तक ढोती फिरे ताकि साक्ष्य के समय कोर्ट को प्रभावित कर सकें इसके बजाए क्या यह उचित नहीं कि हम उसके लिए ऐसा वातावरण तैयार करे जिसमें वह अपने दुख दर्द और जख्मों को भूल पाएं और जिन्दगी फिर एक नई आशा के साथ शुरू कर सके? क्या यह उचित नही कि उन्हें अपनी नारकीय यातनाओं को जल्दी व्यक्त करने का मौका दें तो उन्हें अपनी वेदना और अपनी बदले की भावना को नपुंसकता केस सालोसाल न ढोना पड़े कि समाज और न्याय प्रक्रिया कब उन पर उदार हो और उन्हें अपना बयान देने का मौका मिले? क्या यह पूर्णतया स्वाभाविक नही कि दो से पाँच वर्षो के बाद जब किसी बलात्कार की शिकार महिला को साक्ष्य देने को कहा जाता है और पूरी घटना की वेदना को दुबारा जीने के लिए आग्रहपूर्वक कहा जाता है और उस प्रक्रिया में उसकी छीछालेदर करने कोई उपाय बाकी नहीं छोड़ा जाता है, तो उनके सामने केवल यही उद्येश्य होता है कि किसी तरह वह जल्दी से जल्दी अपने साक्ष्य को पूरा कर ले। अदालत के तनाव भरे वातावरण से दूर भागकर खूली हवा में सांस ले सके। ऐसी हालत में यदि उसके साक्ष्य यथायोग्य तरीके से प्रभावित न कर सके और अपराधी मुक्त हो जाए तो क्या अपराधी से खतरा केवल महिला को है या सारे समाज को है? जलगांव के उदाहरण के बाद समाज को यह विचार करना चाहिए।

दुबारा अंजना के केस पर आते हुए हम एक बात और समझ ले भारतीय अपराध प्रक्रिया महिला सी आर पी सी कहीं भी यह नही --- कि जब बलात्कार और सामूहिक बलात्कार जैसे दो अलग अलग अपराध किए जाते हो तो दोनों की सुनवाई इकट्ठी अंतराल के लिए दी जाए। संहिता तो यही कहती है दोनों अपराध अलग अलग अन्तराल मे भुगतने के लिए कहा जा सकता है। लेकिन हमारी न्यायिक प्रक्रिया में अपराधी को उदारता से देखने का एक रिवाज बन चुका है, जिसके कारण अपराधों के सारे अपराधों को सजा एक समय के अन्तराल में दिए जाने का रिवाज सा चल पड़ा। सौ, सवा वर्ष पहले जब पहली बार संहिता लिखी गई थी, तो उस जमाने का काम, छह महीने के अन्दर पूरे कर लिये जाते थे। तब शायद यह उचित था कि सारे अपराधों की जांच इकट्ठी की जाए और सुनवाई भी इकट्ठी हो तो कोर्ट का समय दो बार नष्ट न हो । पर अब तो ऐसी हालत नहीं है इसलिए आज हमें इस परिपाटी को बदलना होगा । आज की --- आवश्यकता यह है कि जो भी अपराध तत्परता से सिद्ध हो पाना संभव हो उसकी कानूनी प्रक्रिया हम तत्परता से शुरू कर दें ताकि समाज के लिये कोई उदाहरण तो प्रस्तुत हो कि हम भी बलात्कार के शिकार महिलाओं को तत्परता से न्याय दिला सकते हैं और समाज को भी तत्परता से अपराध के भय से मुक्त कर सकते हैं । न्यायिक प्रक्रिया आरभं करने को तत्पर मांग हम केवल अंजना के लिये नहीं मांगते, वरन्‌ हमारे समाज की इसी तत्परता में टिकी है। आइए, अपने गणतत्रं के पचासवें वर्ष में अपने आप को एक कार्य तत्पर दंड संहिता और अपराध प्रक्रिया संहिता उपहार दें।
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