शनिवार, 24 मई 2008

मेरी प्रांतसाहबी--1 -- My days as Assistant Collector

मेरी प्रांतसाहबी -- 1

१० अगस्त १९७६ की तिथी थी जिस दिन मैंने हवेली असिस्टंट क्लेक्टर का पद संभाला। इससे पहले दो वर्षों का कार्यकाल प्रशिक्षण का था। वे दो वर्ष और अगले दो वर्ष- भारतीय प्रशासनिक सेवा की बसे कनिष्ठ श्रेणी के वर्ष होते हैं और जिम्मेदार अफसर बनने के अच्छे स्कूल का काम भी करते हैं। इस पोस्ट का नाम भी जबरदस्त है- असिस्टंट कलेक्टर या सब डिविजनल ऑफिसर। कहीं सब डिविजनल मॅजिस्ट्रेट भी। लेकिन महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में 'प्रांतसाहेब' अधिक परिचित संबोधन है। एकेक जिले में तीन या चार असिस्टंट कलेक्टर होते हैं। उनका काम और अधिकार कक्षा कलेक्टर के काम से काफी अलग, काफी सीमित क्षेत्रों में लेकिन वाकई में जमीनी सतह के होते हैं।

ब्रिटिश राज के दिनों से ही पटवारी, मंडल अधिकारी, तहसिलदार, सबडिविजनल ऑफिसर कलेक्टर, कमिश्नर जैसी अधिकारियों की एक सुदृढ शृंखला बनाकर उनके मार्फत जमीन के प्रशासन से संबंधित सारे कार्य निपटायें जाते थे। जमीन से जुड़े व्यवहारों का लेखा जोखा ब्रिटिशों से पहले भी मुगलों के, निजाम के, शिवाजी के और पेशवे कालीन महाराष्ट्र में रख्खा जाता था। इसके लिए जोशी, कुलकर्णी, सरदेशमुख जैसे पद भी नियत थे। भूमि कर उन्हीं के मार्फत वसूला जाता और सरकारी खजाने में जमा होता। बंगाल-बिहार आदि में जमींदार और वसूलने के लिए चौधारियों की प्रथा थी। लेकिन ब्रिटिश राज की यह खासियत मानी जायगी कि उन्होंने जमीन और प्रशासन से जुड़े सभी कामों को इस एक ही पोस्ट में एकत्रित कर दिया। चाहे जमीन की नाप जोत करनी हो, चाहे खसरा-खतौनी के पट्टे बनाने हों, चाहे भूमिकर वसूलना हो, चाहे वसूली गई रकम का हिसाब रखना हो, कभी सूखा पड़ जाए तो भूमिकर या लगान माफ करनी हो, जो नई जमीन कृषि के उपयोग में लाई जाएगी उसकी नाप जोत कर उसकी लगान तय करना हो, चाहे उत्तराधिकार तय करना हो, जमीन से उत्पन्न झगड़े बखेडे निपटाने हों या कभी जमीन के कारण अपराध, दंगे हो रहे हों और उन्हे सख्ती से रोकना हो- सारे कार्य उस एक अधिकारी की- कलेक्टर की कार्य कक्षा में थे जिसे सरकारी खजाने को भरे पूरे रखने की जिम्मेदारी भी सौंपी गई थी। उन दिनों भूमिकर और जंगल संपदा ही सरकारी खजाने की आय का प्रमुख जरिया थे। अतः जिला स्तर पर कलेक्टर ही ब्रिटिश राज का प्रतिनिधि और सर्वेसर्वा होता था। हर वर्ष हाने वाली फसल का हिसाब वही रखता था। जिला ट्रेझरी उसी के अधीन थी। दो विश्र्वयुद्धों के कारण जब राशन व्यवस्था लागू की तो उसका मुखिया भी कलेक्टर ही था। इसके अलावा हर जिले का हर साल गजेटियर बनाने का काम भी उसी का होता था। जो कलेक्टर अच्छा लिख सकते थे उन्हें प्रशासन के उपयुक्त अच्छी पुस्तकें लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। दंगे हुए, झगड़े हुए तो उनका सीधा असर लगान वसूली और सरकारी तिजोरी पर पड़ता था। दंगे की रोकथाम सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती। इसी से जिला पुलिस अधीक्षक कलेक्टर के अधीन ही होता था और क्रिमिनल प्रोसिजर कोड के कई सेक्शन जिला मॅजिस्ट्रेट की कचहरी में ही चलाए जाते।
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